शनिवार, 17 अप्रैल 2010

आलेख

शिक्षित नारी स्वयं उबर जाएगी
नवरात्रि को व्यतीत हुए ज्यादा दिन नहीं हुए हैं। नवरात्रि में देवी दुर्गा की शक्ति के रूप में आराधना में जगराते किए गए और व्रत-उपवास रखा गया। यह सब स्त्रियों ने ही नहीं पुरुषों ने भी बढ़-चढ़ कर किया। भारतीय पुरुष भी देवी के शक्तिस्वरूप को स्वीकार करते हैं किंतु स्त्री का प्रश्न आते ही विचारों में दोहरापन आ जाता है। इस दोहरेपन के कारण को जाँचने के लिए हमें बार-बार उस काल तक की यात्रा करनी पड़ती है जिसमें 'मनुस्मृति' और उस तरह के दूसरे शास्त्रों की रचना की गई जिनमें स्त्रियों को दलित बनाए रखने के 'टिप्स' थे।
फिर भी पुरुषों में सभी कट्टर मनुवादी नहीं हुए समय-समय पर अनेक पुरुष जिन्हें हम 'महापुरुष' की भी संज्ञा देते हैं, मनुस्मृति की बुराइयों को पहचान कर स्त्रियों को उनके मौलिक अधिकार दिलाने के लिए आगे आए और न केवल सिद्धांत से अपितु व्यक्तिगत जीवन के द्वारा भी मनुस्मृति के सहअस्तित्व-विरोधी बातों का विरोध किया। इनमें एक महत्वपूर्ण नाम है बाबा साहब डॉ. अंबेडकर का।
आमतौर पर यही मान लिया जाता है कि बाबा साहब अंबेडकर समाज के दलित वर्ग के उद्धार के संबंध में क्रियाशील रहे अतः उन्होंने दलित वर्ग की स्त्रियों के विषय में ही चिंतन किया होगा। किंतु अंबेडकर राष्ट्र को एक नया स्वरूप देना चाहते थे। एक ऐसा स्वरूप जिसमें किसी भी व्यक्ति को दलित जीवन न जीना पड़े। अंबेडकर की दृष्टि में वे सभी भारतीय स्त्रियां दलित श्रेणी में थीं जो मनुवादी सामाजिक नियमों के कारण अपने अधिकारों से वंचित थीं।
19 जुलाई, 1942 को नागपुर में संपन्न हुई 'दलित वर्ग परिषद्' की सभा में डॉ. अंबेडकर ने कहा था, 'नारी जगत्‌ की प्रगति जिस अनुपात में हुई होगी, उसी मानदंड से मैं उस समाज की प्रगति को आँकता हूँ।' इसी सभा में डॉ. अंबेडकर ने ग़रीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाली स्त्रियों से आग्रह किया था कि 'आप सफाई से रहना सीखो, सभी अनैतिक बुराइयों से बचो, हीन भावना को त्याग दो, शादी-विवाह की जल्दी मत करो और अधिक संतानें पैदा करो। पत्नी को चाहिए कि वह अपने पति के कार्य में एक मित्र, एक सहयोगी के रूप में दायित्व निभाए। लेकिन यदि पति गुलाम के रूप में बर्ताव करे तो उसका खुल कर विरोध करो, उसकी बुरी आदतों का खुल कर विरोध करना चाहिए और समानता का आग्रह करना चाहिए।
डॉ. अंबेडकर के इन विचारों को कितना आत्मसात किया गया इसके आँकड़े घरेलू हिंसा के दर्ज आँकड़े ही बयान कर देते हैं। जो दर्ज नहीं होते हैं ऐसे भी हजारों मामले हैं। सच तो यह है कि स्त्रियों के प्रति डॉ. अंबेडकर के विचारों को हमने भली-भाँति समझा ही नहीं। हमने उन्हें दलितों का मसीहा तो माना किंतु उनके मानवतावादी विचारों के उन पहलुओं को लगभग अनदेखा कर दिया जो भारतीय समाज का ढाँचा बदलने की क्षमता रखते हैं।
डॉ. अंबेडकर ने हमेशा हर वर्ग की स्त्री की भलाई के बारे में सोचा। स्त्री का अस्तित्व उनके लिए जाति, धर्म के बंधन से परे था, क्योंकि वे जानते थे कि प्रत्येक वर्ग की स्त्री की दशा एक समान है। इसीलिए उनका विचार था कि भारतीय समाज में समस्त स्त्रियों की उन्नति, शिक्षा और संगठन के बिना, समाज का सांस्कृतिक तथा आर्थिक उत्थान अधूरा है। इसी ध्येय को क्रियान्वित करने के लिए उन्होंने सन्‌ 1955 में 'हिंदू कोड बिल' तैयार किया।
वस्तुतः यह स्त्रियों की दलित स्थिति को बदलने का घोषणापत्र था। इसके जरिए स्त्रियों को समान अधिकार और संरक्षण दिए जाने की पैरवी की। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि स्त्रियों को संपत्ति, विवाह-विच्छेद, उत्तराधिकार, गोद लेने, बालिग स्त्री की अनुमति के बिना उसका विवाह न किए जाने का अधिकार दिया जाए। भारतीय संस्कृति में वैवाहिक संबंध परंपरागत मान्यताओं पर आधारित होते हैं। इस परंपरागत आधार का अचानक टूटना सहजता से ग्राह्य नहीं हो सकता है।
डॉ. अंबेडकर का विचार था कि यदि स्त्री पढ़-लिख जाए तो वह पिछड़ेपन से स्वतः उबर जाएगी। आज स्त्रियों का बड़ा प्रतिशत साक्षर है, फिर भी वह अपनी दुर्दशा से उबर नहीं पाई है। यह ठीक है कि आज गाँव की पंचायतों से ले कर देश के सर्वोच्च पद तक स्त्री मौजूद है लेकिन इसे देश की सभी स्त्रियों की प्रगति मान लेना ठीक उसी प्रकार होगा जैसे किसी प्यूरीफायर के छने पानी को देख कर गंगा नदी के पानी को पूरी तरह स्वच्छ मान लिया जाए।
तीन 'सु'लेखिकाओं का सुंदर संवाद
गर्मी की तपती और उमस भरी शाम में दूरदर्शन केंद्र का वह कमरा थो़ड़ा राहत भरा था। यह राहत दो मायनों में मिल रही थी। जिनमें से एक तकनीकी थी यानी कमरे में एयरकंडीशनर का होना और दूसरा उसी कमरे में हिन्दी की ख्यात रचनाकारों का सुधिजनों से रूबरू होना। कुछ अपनी कहने और बहुत सारी उनकी सुनने को समय तो कम था फिर भी जो मिला उसने पूरी शाम का लुत्फ दे दिया।
दूरदर्शन केंद्र इंदौर ने मंगलवार शाम 'रचना समय' कार्यक्रम का आयोजन किया, जिसमें हिन्दी लेखन क्षेत्र से जु़ड़ी ख्यात महिला रचनाकारों ने शिरकत की। इनमें प्रसिद्ध कहानी लेखक सुधा अरो़ड़ा, सूर्यबाला तथा कवियत्री पद्मश्री डॉ. सुनीता जैन शामिल थीं। कार्यक्रम में उनके रचना पाठ के साथ ही चर्चा का दौर भी चला। थोड़ी हँसी और खिलखिलाहटें भी बिखरीं और कुछ तंज देती बातों ने दिमाग में प्रश्न भी खड़े कर दिए। सर्वप्रथम अपनी कुछ चुनी हुई कविताओं द्वारा डॉ. सुनीता जैन ने सामाजिक तथा पारिवारिक परिस्थितियों पर सवाल खड़े किए। घर के एक कोने में पड़े सामान से बुजुर्ग तथा नक्सलवाद की बली चढ़ते युवकों के हालात उन्होंने कविताओं के जरिए बयान किए। उनकी एक कविता की कुछ पंक्तियाँ देखिए-
हर घर में कोई शर्मनाक कहानी है तो वो
जवान बेटी के किसी के साथ भाग जाने की नहीं
वह कहानी है दादी के खाँसने पर
दरवाजा बंद करने की
कथाकार सुधा अरो़ड़ा ने अपनी कहानी 'तीसरी बेटी के नाम' में स्त्रियों के साथ घटे बर्बर वाकयों की पड़ताल की। यह कहानी चर्चित नैना साहनी हत्याकांड से प्रेरित थी। वहीं सूर्यबालाजी ने दांपत्य जीवन पर आधारित एक व्यंग्य रचना का पाठ किया। यह रचना वाचाल पत्नी तथा अल्पभाषी पति के बीच की कही-अनकही को मजेदार तरीके से प्रस्तुत करती है। कथाकार कृष्णा अग्निहोत्री ने 'मुआवा' नामक कहानी का पाठ किया। हालाँकि कुछ तकनीकी व्यवधानों ने कार्यक्रम के प्रारंभ होने में विलंब डाला, लेकिन रचनाकारों को सुनने की उत्कंठा तथा धैर्य दोनों ही श्रोताओं के साथ बने रहे।
तीनों ही रचनाकारों ने श्रोताओं की संख्या का दिल से स्वागत किया और माना कि बड़े शहरों में अक्सर मंच पर बैठे लोगों की संख्या सामने बैठे श्रोताओं से ज्यादा होती है। कार्यक्रम के प्रारंभ में केंद्र की प्रमुख गीता मरकाम एवं अभियंता संजय प्रसाद ने अतिथि रचनाकारों तथा चित्रकार मीरा गुप्ता का स्वागत किया। कार्यक्रम का संचालन प्रभु जोशी ने किया।

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