शनिवार, 6 मार्च 2010

फिल्म समीक्षा

अतिथि तुम कब जाओगे? : पति, पत्नी और अतिथि
बैनर : वॉर्नर ब्रॉस. पिक्चर्स, वाइड फ्रेम फिल्म्स
निर्माता : अमिता पाठक, वॉनर ब्रॉस.
निर्देशक : अश्वनी धीर
संगीत : प्रीतम
कलाकार : अजय देवगन, कोंकणा सेन शर्मा, परेश रावल
यू सर्टिफिकेट * 13 रील * एक घंटा 59 मिनट
रेटिंग : 3/5
इस बिज़ी लाइफ और महँगाई के दौर में अतिथि किसी को भी अच्छा नहीं लगता। वो जमाना बीत चुका है जब गेस्ट घर में कई दिनों तक डेरा डालकर रखते थे और बुरे नहीं लगते थे। इस बात को लेकर निर्देशक अश्विनी धीर ने ‘अतिथि तुम कब जाओगे’ बनाई है। वैसे तो इसकी स्टोरी टीवी के लिए ज्यादा फिट है, लेकिन अश्विनी ‍ने फिल्म बना डाली है। लेकिन फिल्म बुरी नहीं है और समय काटने के लिए देखी जा सकती है।
मुंबई में रहने वाले पुनीत (अजय देवगन) और मुनमुन (कोंकणा सेन शर्मा) की अपनी-अपनी व्यस्त लाइफ है। पुनीत फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखता है और मुनमुन एक ऑफिस में काम करती है। दोनों का एक बेटा है, जो अक्सर उनसे सवाल करता रहता है कि अपने घर गेस्ट क्यों नहीं आते? आखिरकार एक दिन पुनीत के दूर के रिश्तेदार लम्बोदर (परेश रावल) उनके घर आ धमकता है। उन्हें सब चाचाजी कहते हैं। चाचाजी का अंदाज बड़ा निराला है। घर की बाई से ऐसा काम लेते हैं कि वह नौकरी छोड़कर भाग जाती है। मुनमुन इससे बड़ी निराश होती है। उसका कहना है कि पति यदि छोड़ के चले जाए तो तुरंत दूसरा मिल जाता है, लेकिन बाई नहीं मिलती।
चाचाजी के लिए खाना बनाना हो तो नहा कर ही किचन में जाना पड़ता है। ऐसे कई उनके नियम कायदे हैं। एक-दो दिन तो अच्छा लगता है, लेकिन जब चाचाजी जाने का नाम ही नहीं लेते तो पुनीत-मुनमुन उन्हें घर से निकालने के लिए नई-नई तरकीबों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन चाचाजी के आगे ‍सारी ट्रिक्स फेल हो जाती है।
पुनीत अंडरवर्ल्ड के पास भी जाता है, लेकिन फिर भी उसे नाकामी मिलती है। किस तरह वे कामयाब होते हैं और उन्हें चाचाजी का महत्व समझ में आता है ‍यह फिल्म का सार है।
अश्विनी धीर ने इसके पहले ‘वन टू थ्री’ नामक फिल्म बनाई थी, जिसमें उन्होंने अश्लीलता से परहेज नहीं किया था। लेकिन इस फिल्म को उन्होंने फूहड़ता से बचाए रखा और एकदम साफ-सुथरी फिल्म पेश की है।
गणेश जी से अतिथि को जोड़ना और कालिया (विजू खोटे) तथा चाचाजी के वाले कुछ दृश्य अच्छे बन पड़े हैं। फिल्म अंतिम कुछ रीलों में कमजोर पड़ जाती है और कहानी को ठीक से समेटा नहीं गया है। साथ ही कुछ दृश्यों का दोहराव भी है। अंत में जो ड्रामा और उपदेश दिए गए हैं वो बोरियत भरे हैं।
चाचा की हरकतों से परेशान पुनीत का किरदार अजय ने अच्‍छी तरह से निभाया है। कोंकणा सेन को निर्देशक ने कम मौके दिए। परेश रावल इस फिल्म के हीरो हैं। गोरखपुर में रहने वाले लम्बोदर चाचा की बारीकियों को उन्होंने बेहतरीन तरीके से पर्दे पर पेश किया है। सतीश कौशिक, विजू खोटे का अभिनय भी उम्दा है।

संगीत के नाम पर एकाध गाना है और कुछ पैरोडियाँ हैं, जो नहीं भी होती तो खास फर्क नहीं पड़ता। कुल मिलाकर ‘अतिथि तुम कब जाओगे?’ एक साफ-सुथरी हास्य फिल्म है जो देखी जा सकती है।

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