मंगलवार, 16 मार्च 2010

धर्मयात्रा

जैन सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र का मंदिर
धर्मयात्रा की इस बार की कड़ी में हम आपको लेकर चलते हैं नेमावर के जैन सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र में जहाँ भव्य मंदिर खड़ा है नर्मदा के तट पर। इस क्षेत्र का महत्व इसलिए है, क्योंकि यह स्थान प्राचीन काल में जैन संन्यासियों की तपोभूमि हुआ करता था तथा यहाँ कई भव्य मंदिर हुआ करते थे।

रावण के सुत आदि कुमार, मुक्ति गए रेवातट सार।
कोटि पंच अरू लाख पचास, ते बंदों धरि परम हुलास।।

उक्त निर्वाण कांड के श्लोक के अनुसार रावण के पुत्र सहित साढ़े पाँच करोड़ मुनिराज नेमावर के रेवातट से मोक्ष पधारे हैं। रेवा नदी जो कि नर्मदा के नाम से भी जानी जाती है। जैन शास्त्र के अनुसार नेमावर नगरी पर प्रचीन काल में कालसंवर और उनकी रानी कनकमला राज्य करते थे। आगे जाकर यह निमावती और बाद में नेमावर हुआ।

नेमावर नदी के तल से विक्रम संवत 1880 ई.पू. की तीन विशाल जैन प्रतिमाएँ निकली है। पहली 1008 भगवान आदिनाथ की मूर्ति जिन्हें नेमावर जिनालय में, दूसरी 1008 भगवान मुनिसुव्रतनाथ की मूर्ति, जिन्हें खातेगाँव के जिनालय में और 1008 भगवान शांतिनाथ की पद्‍मासनस्त मूर्ति, जिन्हें हरदा में रखा गया है। इसी कारण इस सिद्धक्षेत्र का महत्व और बढ़ गया है।

जैन-तीर्थ संग्रह में मदनकीर्ति ने लिखा है कि 26 जिन तीर्थों का उल्लेख है उनमें रेवा (नर्मदा) के तीर्थ क्षेत्र का महत्व अधिक है उनका कथन है कि रेवा के जल में शांति जिनेश्वर हैं जिनकी पूजा जल देव करते हैं। इसी कारण इस सिद्ध क्षेत्र को महान तीर्थ माना जाता है।

उक्त सिद्ध क्षेत्र पर भव्य निर्माण कार्य प्रगति पर है। यहाँ पर निर्माणाधीन है पंचबालवति एवं त्रिकाल चौबीस जिनालय। लगभग डेढ़ अरब की लागत से उक्त तीर्थ स्थल के निर्माण कार्य की योजना है। लगभग 60 प्रतिशत निर्मित हो चुके यहाँ के मंदिरों की भव्यता देखते ही बनती है।

श्रीदिगंबर जैन रेवातट सिद्धोदय ट्रस्ट नेमावर, सिद्धक्षेत्र द्वारा उक्त निर्माण किया जा रहा है। ट्रस्ट के पास 15 एकड़ जमीन हो गई है जिसमें विश्व के अनूठे 'पंचबालयति त्रिकाल चौबीसी' जिनालय का निर्माण अहमदाबाद के शिल्पज्ञ सत्यप्रकाशजी एवं सी.बी. सोमपुरा के निर्देशन में हो हो रहा है। संपूर्ण मंदिर वं‍शी पहाड़पुर के लाल पत्थर से निर्मित हो रहा है।

पूर्ण मंदिर की लम्बाई 410 फिट, चौड़ाई 325 फिट एवं शिखर की ऊँचाई 121 फिट प्रस्तावित है। जिसमें पंचबालयति जिनालय 55 गुणित 55 लम्बा-चौड़ा है। सभा मंडप 64 गुणित 65 लम्बा-चौड़ा एवं 75 फिट ऊँचा बनना है।

खातेगाँव, नेमावर और हरदा के जैन श्रद्वालुओं के अनुरोध पर श्री 108 विद्यासागरजी महाराज के इस क्षेत्र में आगमन के बाद से ही इस तीर्थ क्षेत्र के विकास कार्य को प्रगति और दिशा मिली। श्रीजी के सानिध्य में ही उक्त क्षेत्र पर निर्माण कार्य का शिलान्यास किया गया।

इंदौर से मात्र 130 कि.मी. दूर दक्षिण-पूर्व में हरदा रेलवे स्टेशन से 22 कि.मी. तथा उत्तर दिशा में खातेगाँव से 15 कि.मी. दूर पूर्व दिक्षा में स्थित है यह मंदिर। यहाँ नर्मदा नदी के जल स्तर की चौड़ाई करीब 700 मीटर है।

कैसे पहुँचे :-
वायु मार्ग : यहाँ से सबसे नजदीकी हवाई अड्डा देवी अहिल्या एयरपोर्ट, इंदौर 130 किमी की दूरी पर स्थित है।
रेल मार्ग : इंदौर से मात्र 130 किमी दूर दक्षिण-पूर्व में हरदा रेलवे स्टेशन से 22 किमी तथा उत्तर दिशा में भोपाल से 170 किमी दूर पूर्व दिशा में स्थित है नेमावर।
सड़क मार्ग : नेमावर पहुँचने के लिए इंदौर से बस या टैक्सी द्वारा भी जाया जा सकता है।
साँगली के पंचायतन गणपति
'सोने का गणपति है साँगली का, अच्छा लगता है उसे चोला जरी का'। ये कहावत कही जाती है महाराष्ट्र के साँगली के सुप्रसिद्ध गणपति के बारे में क्योंकि यहाँ के गणपति की सुंदरता और समृद्धि देखते ही बनती है। साँगली के आराध्य देव के रूप में प्रसिद्ध यह पंचायतन गणपति मंदिर श्रद्धालुओं की आस्‍था का केंद्र है। ऐसी मान्यता है कि भगवान गणेश यहाँ आने वाले भक्तों की झोली भरकर उन्हें भी सुख-समृद्ध करते हैं।
इस मंदिर में सन 1844 में गणपति की प्राण प्रतिष्ठा की गई थी। मंदिर में भगवान शिव, सूर्य, चिंतामणेश्वरी और ल‍क्ष्मीनारायणजी की भी आकर्षक प्रतिमाएँ विराजमान हैं। लाल पत्थर से निर्मित मंदिर के महाद्वार की बनावट देखते ही बनती है। मंदिर परिसर में की गई नक्काशी अत्यंत सुंदर है। गणपति की प्रतिमा को हीरे-जवाहरात और बहुमूल्य आभूषणों से सजाया गया है। गणपति के साथ स्थापित रिद्धि-सिद्धि की मूर्तियाँ भी आकर्षक एवं मनमोहक है।
इस मंदिर के पास से कृष्णा नदी बहती है। हर वर्ष बारिश के दिनों में कृष्णा नदी रौद्र रूप धारण कर लेती है अत: बाढ़ के पानी से बचाव के लिए मंदिर की विशेष बनावट की गई है। मंदिर के स्तर को ऊँचाई पर रखने के लिए निमार्ण कार्य में कोल्हापुर जिले के ज्योतिबा पहाड़ से लाए गए बड़े-बड़े पत्थरों का उपयोग किया गया है।

इस मंदिर की एक और पहचान है यहाँ का हाथी। मंदिर परिसर में हाथी रखने की परंपरा कई सालों से चली आ रही है। यहाँ आने वाले श्रद्धालु भगवान गणेश के साथ ही हाथी की भी आराधना करते थे। यहाँ का 'सुंदर गजराज' नामक हाथी मंदिर के पुजारियों और साँगली के निवासियों के बीच बहुत लोकप्रिय हो गया था। इसके बाद बबलू नामक हाथी भी श्रद्धालुओं के लिए एक आकर्षण बना रहा। बबलू के गुजर जाने पर लाखों लोग उसे श्रद्धा सुमन अर्पित करने के लिए साँगली आए थे।
इस मंदीर में प्रतिदिन काकड़ आरती, भूपाली इसके साथ ही गणेश अथर्वशीर्ष, प्रदक्षिणा, नवग्रह जप, वेदपरायण, ब्रह्मणस्पतीसूक्त आदि पूजा अनुष्ठान संपन्न होते हैं। भक्तों का विश्वास है कि यहाँ विराजे गणपति बप्पा उन्हें कभी निराश नहीं करते।

प्रतिवर्ष गणेशोत्सव के दरम्यान मंदिर से आकर्षक झाँकी निकलती है जिसे देखने के लिए भक्तों का हुजूम लग जाता है। इस समय 'गणपति बप्पा मोरया, मंगलमूर्ति मोरया' की गूँज के साथ लाखों श्रद्धालु झाँकी में शामिल होते हैं।

मंदिर में आने वाले भक्तों का पूरा विश्वास है कि गणपति बप्पा के सामने नतमस्तम होकर मन से की गई हर कामना पूर्ण होती है। इसलिए केवल हिंदू ही नहीं बल्कि सभी धर्मों के लोग यहाँ आकर अपना शीश नवाते हैं।

कैसे पहुँचे?
वायु मार्ग:- निकटतम कोल्हापुर विमानतल से 45 किमी दूरी पर स्थित है साँगली।
रेल मार्ग:- साँगली गाँव पुणे से 235 किमी और कोल्हापुर से 45 किमी दूरी पर स्थित। सभी मुख्य शहरों से साँगली रेल मार्ग जुड़ा हुआ है।
सड़क मार्ग:- मुंबई, पुणे और कोल्हापुर से बस सुविधा उपलब्ध है।

चार वटों में से एक सिद्धवट
धर्मयात्रा की इस बार की कड़ी में हम आपको लेकर चलते हैं उज्जैन के सिद्धवट स्थान पर। उज्जैन के भैरवगढ़ के पूर्व में शिप्रा के तट पर प्रचीन सिद्धवट का स्थान है। इसे शक्तिभेद तीर्थ के नाम से जाना जाता है। हिंदू पुराणों में इस स्थान की महिमा का वर्णन किया गया है। हिंदू मान्यता अनुसार चार वट वृक्षों का महत्व अधिक है। अक्षयवट, वंशीवट, बौधवट और सिद्धवट के बारे में कहा जाता है कि इनकी प्राचीनता के बारे में कोई नहीं जानता।

नासिक के पंचववटी क्षेत्र में सीता माता की गुफा के पास पाँच प्राचीन वृक्ष है जिन्हें पंचवट के नाम से जाना जाता है। वनवानस के दौरान राम, लक्ष्मण और सीता ने यहाँ कुछ समय बिताया था। इन वृक्षों का भी धार्मिक महत्व है। उक्त सारे वट वक्षों की रोचक कहानियाँ हैं। मुगल काल में इन वृक्षों को खतम करने के कई प्रयास हुए।

सिद्धवट के पुजारी ने कहा कि स्कंद पुराण अनुसार पार्वती माता द्वारा लगाए गए इस वट की शिव के रूप में पूजा होती है। पार्वती के पुत्र कार्तिक स्वामी को यहीं पर सेनापति नियुक्त किया गया था। यहीं उन्होंने तारकासुर का वध किया था। संसार में केवल चार ही पवित्र वट वृक्ष हैं। प्रयाग (इलाहाबाद) में अक्षयवट, मथुरा-वृंदावन में वंशीवट, गया में गयावट जिसे बौधवट भी कहा जाता है और यहाँ उज्जैन में पवित्र सिद्धवट हैं।
पंडित नागेश्वर कन्हैन्यालाल ने कहा कि यहाँ पर नागबलि, नारायण बलि-विधान का विशेष महत्व है। संपत्ति, संतित और सद्‍गति की सिद्धि के कार्य होते हैं। यहाँ पर कालसर्प शांति का विशेष महत्व है, इसीलिए कालसर्प दोष की भी पूजा होती है।

कालसर्प दोष का निदान कराने आईं पुना की श्वेता उपाध्याय ने कहा कि मेरी जन्मकुंडली में कालसर्प दोष था। हमें पता चला कि यहाँ कालसर्प दोष का निदान होता है तो मैं यहाँ पर दोष का निवारण कराने आई हूँ।

वर्तमान में इस सिद्धवट को कर्मकांड, मोक्षकर्म, पिंडदान, कालसर्प दोष पूजा एवं अंत्येष्टि के लिए प्रमुख स्थान माना जाता है। यह यात्रा आपकों कैसी लगी हमें जरूर बताएँ।
श्री लक्ष्मीनृसिंह चंदनोत्सव
अक्षय तृतीया के पवित्र दिन (वैशाख मास) सिंहाचल पर्वत की छटा ही निराली होती है। इस पवित्र दिन यहाँ विराजमान श्री लक्ष्मीनृसिंह भगवान का चंदन से श्रृंगार किया जाता है। माना जाता है कि भगवान की प्रतिमा का वास्तविक स्वरूप केवल इसी दिन देखा जा सकता है। सिंहाचल क्षेत्र ग्यारहवीं सदी में बने विश्व के गिने-चुने प्राचीन मंदिरों में से एक माना जाता है।

‘सिंहाचल’ शब्द का अर्थ है सिंह का पर्वत। यह पर्वत भगवान विष्णु के चौथे अवतार प्रभु नृसिंह का निवास स्थान माना जाता है। माना जाता है कि इस स्थान पर भगवान नृसिंह अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा के लिए अवतरित हुए थे।

स्थल पुराण के अनुसार भक्त प्रहलाद ने ही इस स्थान पर नृसिंह भगवान का पहला मंदिर बनवाया था। भक्त प्रहलाद ने यह मंदिर नृसिंह भगवान द्वारा उनके पिता के संहार के पश्चात बनवाया था। परंतु कृतयुग के पश्चात इस मंदिर का रखरखाव नहीं हो सका और यह मंदिर गर्त में समा गया। कालांतर में लुनार वंश के पुरुरवा ने एक बार फिर इस मंदिर की खोज की और इसका पुनर्निर्माण करवाया।
माना जाता है ऋषि पुरुरवा एक बार अपनी पत्नी उर्वशी के साथ वायु मार्ग से भ्रमण कर रहे थे। यात्रा के दौरान उनका विमान किसी नैसर्गिक शक्ति से प्रभावित होकर दक्षिण के सिंहाचल क्षेत्र में जा पहुँचा। उन्होंने देखा कि प्रभु की प्रतिमा धरती के गर्भ में समाहित है। उन्होंने इस प्रतिमा को निकाला और उस पर जमी धूल साफ की। इस दौरान एक आकाशवाणी हुई कि इस प्रतिमा को साफ करने के बजाय इसे चंदन के लेप से ढाँककर रखा जाए।

इस आकाशवाणी में उन्हें यह भी आदेश मिला कि इस प्रतिमा के शरीर से साल में केवल एक बार, वैशाख माह के तीसरे दिन चंदन का यह लेप हटाया जाएगा और वास्तविक प्रतिमा के दर्शन प्राप्त हो सकेंगे। आकाशवाणी का अनुसरण करते हुए इस प्रतिमा पर चंदन का लेप किया गया और साल में केवल एक बार ही इस प्रतिमा से लेप हटाया जाता है। तब से श्री लक्ष्मीनृसिंह स्वामी भगवान की प्रतिमा को सिंहाचल में ही स्थापित कर दिया गया।

मंदिर का महत्व -
आंध्रप्रदेश के विशाखापट्‍टनम में स्थित यह मंदिर विश्व के प्राचीन मंदिरों में से एक माना जाता है जिसका निर्माण पूर्वी गंगायो में तेरहवीं सदी में करवाया गया था। यह समुद्री तट से 800 फुट ऊँचा है और उत्तरी विशाखापट्‍टनम से 16 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

मंदिर पहुँचने का मार्ग अनन्नास, आम आदि फलों के पेड़ों से सजा हुआ है। मार्ग में राहगीरों के विश्राम के लिए हजारों की संख्या में बड़े पत्थर इन पेड़ों की छाया में स्थापित हैं। मंदिर तक चढ़ने के लिए सीढ़ी का मार्ग है, जिसमें बीच-बीच में तोरण बने हुए हैं।

शनिवार और रविवार के दिन इस मंदिर में हजारों की तादाद में श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं। साथ ही यहाँ दर्शन करने के लिए सबसे उपयुक्त समय अप्रैल से जून तक का होता है। यहाँ पर मनाए जाने वाले मुख्य पर्व हैं वार्षिक कल्याणम (चैत्र शुद्ध एकादशी) तथा चंदन यात्रा (वैशाख माह का तीसरा दिन)।

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