तुम, संध्या के रंगों में आती
मेरी प्रेरणा
तुम, संध्या के रंगों में आती
और आकर मंडराती
फिर बुलबुल बन, मन के बन को,
कर देती आलोड़ित!
फिर पुकार बिरहा के बैन,
नशीले,
बुलबुल सी तू
मेरे दिल को तड़पा जाती
अरी बुलबुल जो तू, मैं होती,
बनी बावरी, जब भी तू आती
मेरे जीवन के सूने आंगन को,
भर दे जाती री सुहाग-राग!
रविवार, 23 मई 2010
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