शनिवार, 17 अप्रैल 2010

काव्य-संसार

छोटी बहन
- मंजरी दुबे
छोटी बहन ढेर से सवाल पूछती मुझसे
मेरे देर से घर लौटने पर
सवाल अक्सर इतने हुआ करते
कि उसे शब्दों और आँखों
दोनों का सहारा लेना पड़ता
अपने तर्कों और बताये जाने वाले
कारणों से उसे संतुष्ट कर पाना
थोड़ा मुश्किल जरूर होता मगर असंभव नहीं
कभी-कभी बहुत प्यार आता मुझे उस पर
मातृवत स्नेह से भर जाता मन
जब कोई हठ कर बैठती मुझसे
रूठी हुई छोटी बहन को मनाते हुए
बहुत भला लगता मुझको
हर हठ जो पूरी हो जाती और जो अधूरी रह जाती
सोच में कैद होकर हो जाती हमेशा के लिए
कितने ही क्षण ऐसे आये जिनमें मेरा ही नहीं
उसका भी मन भर गया किसी कसैले स्वाद से
लगता था उन क्षणों में
यह प्रत्यंचा जाने कितनी और तनेगी
लेकिन बस एक प्यारी हँसी
जो गलबहियाँ डालकर भेंट करती मुझे
बस सब कुछ भुला देती मेरी छोटी बहन
सौजन्य से - नया ज्ञानोदय

उसे देखता था कोई
उसे भी पता चले
कोई उसे देख रहा है कहकर
मैंने उजाला ओझल करना चाहा
उसकी त्वचा वैसे ही चमक रही थी
नया पानी जैसे दिसंबर का

मुझे डर था
कहीं मैं उसे मार न दूँ

पहाड़ पर साँप से डर नहीं लगता
साथ ही रहते हैं बनैले पशु भी
पहाड़ जब करते हैं अकेला
गुमा देते हैं
अपनी दरारों में
जाने किस बात पर उसका हँसना ठहरा
हर बार ठीक नहीं लगता
मुस्कराना भी कई बार लगता है ज़हर

कल जब मैं नहीं रहूँगा
यह रात रहेगी
आवाज रहेगी गूँजती उन चट्‍टानों में
जो अपने पत्थरों में टूटकर
पानी में मिट्‍टी हो गई

उसे भी पता चलेगा
कोई उसे देखता था।

ऐसा हुआ अंत
बंदूक का घोड़ा दबाना
बरसाना शब्द चिंगारियों जैसे
छूरे जैसी चलाना जुबान
ये सब अब नहीं रहा मेरे बूते का

सब तरफ तो वही का वही
फरेब, झूठ और पाखंड
नए-नए रूप श्रृंगार में
कैसे क्या करूँ ?
समझ नहीं पा रहा
किस बात पर बहा दूँ खून अपना
खामोशी की किस चट्टान पर अपने आँसू

थक गया हूँ शोक-सभाओं में
शामिल हो-होकर
जहाँ भी किए बाउंस हो रहे
फर्जी चेक की तरह मेरे हस्ताक्षर

शतरंज की जिस बिसात पर रहा
कभी वजीर, कभी हाथी-घोड़ा
कभी प्यादा सबसे छोटा
पर कमजोर कतई नहीं
वही घिरी लपटों के बवंडर में
किसी भी तरफ से पानी की बौछार तक नहीं
और मैं काठ का प्यादा
मेरे साथ सच
किंतु कह नहीं पा रहा
काबिज जो भी जहाँ, वही हत्यारा
और कहता भी हूँ चीख-चीखकर
तो कोई सुनता ही नहीं

अव्वल तो नहीं आएगा ऐसा मौका
फिर भी कभी कोई पूछ ले भूले-भटके
तो तुम ही बता देना -
वह कायर नहीं था पर जैसा हुआ अंत
वह कायर सिद्ध हुआ

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