शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

घर संसार

शादी आजकल

मेरे पास गाडी है, बंगला है..तुम्हारे पास क्या है? मेरे पास मां है..।
इस फिल्मी डायलॉग को थोडा बदल दें तो आज युवाओं के पास वाकई सब कुछ है। बेहतरीन करियर, बैंक बैलेंस, घर, गाडी, सुख-सुविधाएं, दोस्त..। इन सबके बीच शादी कहां है? ओह गॉड, ऐसी भी क्या जल्दी है! कुछ दिन तो चैन से जीने दो.. युवाओं का जवाब ऐसा ही होता है। एक फ्रेंच कहावत है कि युवा उम्मीद में जीते हैं, बूढे यादों में, लेकिन युवा वर्ग की ये उम्मीदें इतनी होती हैं कि जिंदगी के अन्य पहलुओं के बारे में सोचने का मौका नहीं मिलता। शादी भी उनकी प्राथमिकता सूची में पीछे खिसकती जा रही है।

कवर स्टोरी की फोटो पिछले वर्ष की सबसे चर्चित शादी की है। शिल्पा शेट्टी ग्लैमर की दुनिया में हैं, जहां देर से शादी बडा मसला नहीं है। पिछले कुछ वर्षो में शादी की उम्र तेजी से आगे खिसकने लगी है। महानगरीय युवाओं में सिंगल रहने के साथ ही लिव-इन रिलेशनशिप का ट्रेंड बढा है। शादियां भी हो रही हैं, लेकिन उस तरह नहीं, जैसी अपेक्षा पुरानी पीढी को थी। रिश्ते जन्म-जन्मांतर के बंधन के बजाय सुविधा बनते जा रहे हैं। माता-पिता लाडले बेटे को दूसरे शहर या देश भेजने से पहले सर्वगुणसंपन्न व गृहकार्य में निपुण लडकी के पल्ले नहींबांध पाते। बदलाव तो आया है, लेकिन बजाय इसकी आलोचना के उन स्थितियों-मूल्यों को समझने की कोशिश की जानी चाहिए जो युवाओं की सोच को निर्धारित कर रही हैं।

मुश्किल है शादी का फैसला

क्या वाकई युवाओं के लिए विवाह का निर्णय लेना मुश्किल हो रहा है? दिल्ली स्थित एक पी.आर. कंपनी से जुडी गौरी कहती हैं, मैं 24 की हूं। मेरा मानना है कि पहले करियर जरूरी है। शादी से डर यह है कि ससुराल में एडजस्ट कर पाऊंगी कि नहीं। अरेंज मैरिज नहीं करूंगी। वैसे मेरे पुरुष मित्र भी हैं, मगर अभी तक कोई ऐसा नहीं मिला, जिस पर भरोसा कर सकूं।

देहरादून में मेडिकल छात्रा 19 वर्षीय नताशा के विचार अलग हैं। कहती हैं, एक उम्र के बाद भावनात्मक साझेदारी जरूरी है। मैं अभी इतनी परिपक्व नहीं हूं कि फैसले खुद ले सकूं।

इसलिए शादी का फैसला मम्मी-पापा पर छोडूंगी। करियर तो जरूरी है। मैं नहीं समझती कि युवा शादी या कमिटमेंट से बचते हैं। करियर के चलते शादी में देरी जरूर होती है।

शादी को लेकर लडकों के भय अलग तरह के हैं। दिल्ली में एक कॉल सेंटर में कार्यरत रोहित अपनी पीडा बयान करते हैं, मम्मी-पापा ने मेरे लिए लडकी पसंद की। चट मंगनी पट ब्याह वाली बात हो गई। मंगेतर की जिद थी कि अपने लिए वह खुद खरीदारी करेगी। मैंने उसकी बात मानी, अब पछता रहा हूं। मेरा पूरा बजट बिगड गया। उसे समझाया, लेकिन वह नहीं समझी। मेरी जिम्मेदारियां बहुत हैं। शादी के बाद भी उसका यही स्वभाव रहा तो कैसे निभा पाऊंगा।

पुणे स्थित मल्टीनेशनल कंपनी के 25 वर्षीय कंप्यूटर इंजीनियर अंकित का कहना है कि उन्हें कंपनी तीन वर्ष के लिए यू.एस. भेज रही है, जिसमें शर्त है कि इस दौरान वह शादी नहीं कर सकेंगे। कहते हैं, शादी का फैसला माता-पिता ही लें तो बेहतर है। मैं ऐसी लडकी से शादी नहीं करना चाहता, जो मेरे घरवालों के साथ न निभा सके। पैरेंट्स ही बहू चुनेंगे तो बाद में मुश्किल नहीं होगी।

सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता के.जैन कहती हैं, मैंने शादी नहीं की है, लेकिन 50 की उम्र में कमी खलती है। शादी न करने का बडा नुकसान यह है कि भावनात्मक साझेदारी नहीं हो पाती। बहन-भाई या मित्र सभी अपने घर-परिवार में व्यस्त हैं। शाम को घर लौटने पर घर खाली लगता है। बिजली, फोन, गैस जैसे तमाम बिल खुद भरने पडते हैं। अकेले महानगरों में जीवनयापन वाकई मुश्किल है।

अभिनेत्री प्राची देसाई की मां अमिता का कहना है कि आज युवाओं के पास मनचाहा करियर है, लेकिन मनचाही जिंदगी नहीं है। कहती हैं, मेरी बेटी प्राची ग्लैमर व‌र्ल्ड में है। वह मेरी हर बात मानती है, फिर भी मैं अपने विचार उस पर नहीं थोप सकती। माता-पिता के साथ मेरे भी मतभेद होते थे, पर वह समय अलग था। नई पीढी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है। शादी अब कमिटमेंट से ज्यादा कंपेनियनशिप है। प्राची का करियर ऐसा है कि शादी से बाधा हो सकती है। यदि वह 30 की उम्र में यह फैसला ले तो आश्चर्य नहीं होगा। मैंने दोनों बेटियों प्राची, ईशा के साथ नौकरी की। पति अकसर बाहर रहते थे। प्राची पंचगनी में पढती थी, घर पर मैं अकेले मैनेज करती थी। मेरी बेटियां भी सब संभाल सकेंगी, कहना मुश्किल है।

करियर है प्राथमिकता

एक ग्लोबल स्वीडिश सर्वे बताता है कि भारतीय युवा की प्राथमिकता सूची में काम, करियर और उच्च जीवन स्तर सर्वोपरि है। भारतीय समाज की धुरी है परिवार, लेकिन आज का युवा परिवार व बच्चे की चाह से दूर जा रहा है। कई लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि शादी से इतर भी जिंदगी है। ये यूरोपीय युवाओं की तुलना में करियर को ज्यादा महत्व दे रहे हैं।

यह सर्वे एशिया सहित यूरोप व उत्तरी अमेरिका के17 देशों में 16 से 35 वर्ष की आयु के बीच किया गया था। इसके अनुसार 17 फीसदी जापानी व 27 प्रतिशत जर्मन जहां अपनी निजी जिंदगी व काम से खुश हैं, वहीं50 फीसदी से भी ज्यादा भारतीय युवा जिंदगी व करियर से खुश हैं। सर्वे कम से कम यह तो दर्शाता है कि देर से शादी बडी चिंता का विषय नहीं है।

रिश्ते बदलाव के दौर में

हाल ही में डॉ. शेफाली संध्या की पुस्तक लव विल फॉलो : ह्वाई द इंडियन मैरिज इज बर्रि्नग आई है। यह भारत व विदेशों में रहने वाले दंपतियों पर 12 वर्र्षो के शोध के बाद लिखी गई है। इसके मुताबिक 25 से 39 वर्ष की आयु वाले भारतीय जोडों में तलाक के केस बढे हैं। 80-85 फीसदी मामलों में यह पहल स्त्रियां कर रही हैं। 94 फीसदी मध्यवर्गीय युगल मानते हैं कि वे शादी से खुश हैं, लेकिन ज्यादातर का कहना है कि दोबारा मौका मिले तो वे मौजूदा साथी से शादी नहीं करेंगे। एक तिहाई भारतीय सेक्स लाइफ से संतुष्ट नहीं हैं।

दिल्ली की वरिष्ठ मैरिज काउंसलर डॉ. वसंता आर. पत्री कहती हैं, सामाजिक मूल्य बदले हैं तो वैवाहिक रिश्ते भी बदले हैं। तलाक भी इसलिए बढे हैं, क्योंकि लडकियां आत्मनिर्भर हैं। पहले शादियां इसलिए चलती थीं कि लोगों के पास कोई विकल्प नहीं था। खामोशी से सब कुछ सहन करने वाली पीढी अब नहीं है।

विवाह आउटडेटेड नहीं

इसमें कई तरह की समस्याएं हैं, फिर भी मैं विवाह संस्था का समर्थन करता हूं, तब तक करता रहूंगा, जब तक कि इससे बेहतर कुछ और नहीं मिल जाता।

डेविड ब्लैकेनहॉर्न (इंस्टीट्यूट फॉर अमेरिकन वैल्यूज)

विवाह संस्था को लेकर युवाओं से हुई बातचीत में कई विरोधाभासी दृष्टिकोण सामने आते हैं। उनके लिए यह घंटों बहस का मुद्दा है, लेकिन अंतत: सभी विवाह को जरूरी मानते हैं। देखें, क्या कहते हैं वे विवाह के पक्ष-विपक्ष में-

पक्ष: विवाह में स्त्री व पुरुष दोनों का सम्मान व प्रतिष्ठा निहित है। स्त्री की सुरक्षा इसी में है।

विपक्ष: तलाक के आंकडे बताते हैं कि यह संस्था विकृत होने लगी है। अमेरिका में तीन में से एक शादी तलाक की राह पर है।भारत में भी पिछले 10 वर्र्षो में तलाक में तेजी आई है।

पक्ष: इसमें बच्चों का भविष्य सुरक्षित है।

विपक्ष: सुरक्षा आपसी समझदारी पर निर्भर है। माता-पिता में तकरार होती रहे, संबंध तनावपूर्ण रहें तो बच्चों का भविष्य कैसे सुरक्षित रहेगा।

पक्ष: एक बार विवाह विफल होने का अर्थ यह नहींहै कि इसमें खामी है या लोग इसमें भरोसा खो रहे हैं। वे दोबारा शादी भी कर रहे हैं।

विपक्ष: दोबारा विवाह भारतीय समाज में अभी भी आसान नहीं है। ज्यादातर भारतीय विवाह महज इसलिए टिके रहते हैं कि लोग बच्चों की खातिर अकेले रहने से डरते हैं।

पक्ष: विवाह एक साथ कई जिंदगियों को जोडता है। इसमें दो परिवारों का मिलन होता है, इसलिए यह एक प्रतिष्ठित संस्था है।

विपक्ष: यही इसकी खामी भी है।निजी जीवन में जब परिवारों का हस्तक्षेप बढता है तो बात बनने के बजाय बिगडती है।

पक्ष: यह सबसे स्थायी संबंध है।

विपक्ष: शायद इसलिए लोग अकसर अपने जीवनसाथी को फॉर ग्रांटेड लेने लगते हैं। इससे शादी में बोरियत आने लगती है और पति-पत्नी के संबंध बोझिल होने लगते हैं।

विशेषज्ञों का नजरिया

कमिटमेंट फोबिया दोनों को है

पहले कमिटमेंट का भय महज पुरुषों में था। क्योंकि यह कमिटमेंट कहीं न कहीं व्यक्तिगत आजादी को बाधित करता है। पहले पुरुष के हाथ में शक्ति थी, आज शिक्षा, रोजगार, बेहतर करियर के चलते स्त्री के हाथ में भी वह शक्ति है, लिहाजा कमिटमेंट फोबिया दोनों को ही है। स्त्री का घरेलू-परंपरागत स्वरूप भी बदला है। समाज में अपनी अलग पहचान बनाने, सब कुछ परफेक्ट ढंग से करने की इच्छा ने उन्हें भी शादी देर से करने को प्रेरित किया है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि मौजूदा समाज आत्मकेंद्रित हो रहा है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि युवा मूल्य-विरोधी या गैर-जिम्मेदार हैं। उन्हें देखने का हमारा नजरिया बदला है।

बदलाव सकारात्मक हैं। लडका-लडकी दोनों के बाहर निकलने से घरेलू जिम्मेदारियों में भी एक अलग किस्म की शेयरिंग पैदा हुई है। यह भी अच्छा है कि अभिभावक व बच्चे आज अपनी समस्याओं पर खुलकर बात कर रहे हैं। धैर्य की कमी तो है, क्योंकि युवा हर कार्य परफेक्ट ढंग से करना चाहते हैं।

रिश्ते बिगड रहे हैं, टूट रहे हैं, क्योंकि स्त्रियों की दुनिया तेजी से बदली है, जिसे स्वीकार कर पाना अभी पुरुषों के लिए मुश्किल हो रहा है।

डॉ. जितेंद्र नागपाल, वरिष्ठ मनोचिकित्सक, मूलचंद मेडिसिटी दिल्ली

भौतिकवादी है आज का युवा

समाज में बदलाव आया है। पहले सात फेरे होते ही लडका-लडकी एक-दूजे के हो जाते थे। अब वह एहसास गुम होने लगा है। रिश्तों में दखलअंदाजी भी पहले इसलिए होती थी कि पति-पत्‍‌नी एक-दूसरे के साथ निभा सकें। अब यह नकारात्मक ज्यादा हो रही है। रिश्ता अब प्राइस टैग से जुड गया है। वर कितना कमाता है, वधू क्या लाएगी.., इनके बीच जीवन की खूबियां पीछे छूट रही हैं। कितना पाया-कितना खोया जैसा हिसाब जब करीबी रिश्तों में होने लगता है तो छोटी-छोटी खुशियां दूर जाने लगती हैं। शादी में देरी की वजह समाज में बढता खुलापन भी है। युवाओं के पास आज लिव-इन-रिलेशन, डेटिंग जैसे विकल्प हैं, तो फिर शादी करके जिम्मेदारियां क्यों लें।

डॉ. जयंती दत्ता, वरिष्ठ मनोविश्लेषक, दिल्ली

व्यावहारिक हैं तो परेशानी क्यों

करियर अगर आज की प्राथमिकता है तो क्या बुरा है? युवाओं को महसूस हो रहा है कि शादी से करियर व स्वतंत्रता पर प्रभाव पडेगा, इसलिए वे इसमें देर कर रहे हैं। समाज में खुलापन आया है, साथी मिल रहे हैं। माता-पिता भी अब बहुत रोक-टोक नहीं करते। सामाजिक मूल्य बदले हैं। महानगरों में सहजीवन भी एक जरूरत या सुविधा के रूप में नजर आ रहा है। आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा के लिए भी लोग ऐसे रिश्ते निभा रहे हैं। जब जिम्मेदारियां निभा सकें, तभी शादी करें। कई बार युवा अपने आसपास रिश्ते टूटते देखते हैं, तो इसका प्रभाव भी उन पर पडता है। वे शादी का फैसला आंख खोलकर लेना चाहते हैं।

डॉ. वसंता आर. पत्री, मैरिज काउंसलर, दिल्ली

तसवीर का एक रुख यह भी है

आज युवा शादी का फैसला खुद लेने में सक्षम है तो अलग होने का निर्णय भी वह खुद ले सकता है। माता-पिता की भूमिका इसमें दर्शक की होती जा रही है। लेकिन उन्होंने भी खुद को बदला है। वे अब बेटियों को हर हाल में एडजस्ट करने की शिक्षा नहीं देते। रिश्ते बिगडने पर उसे वापस भी बुलाते हैं। उन्हें अब यह परवाह नहींहै कि बेटी ससुराल से लौटेगी तो लोग क्या कहेंगे।

लेकिन क्या यह सोच महानगरों तक ही सीमित है? लखनऊ के एक प्रतिष्ठित परिवार की उच्चशिक्षित, आत्मनिर्भर बेटी की शादी धूमधाम व लेन-देन के साथ हुई। पति की इच्छा से लडकी को नौकरी छोडनी पडी। इस लेन-देन में कोई कमी रह गई, नतीजा यह हुआ कि लडकी मायके लौट गई। वह नौकरी कर रही है। माता-पिता इसे बुरा नहीं मानते।

लडकियों की निर्णय-क्षमता बढी है। हाल ही में अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी की शादी जब चर्चा का विषय थी, उसी समय कुछ ऐसी खबरें भी थीं, जिनमें लडकियों ने दहेज या लडके वालों की किसी नाजायज बात पर बारात को बैरंग लौटा दिया। ये खबरें छोटे शहरों की थीं। लडकियों की इस निर्णय-क्षमता की सराहना की जानी चाहिए। यह वह शुरुआत है, जिस पर चर्चा होनी चाहिए। समाज में होने वाला हर बदलाव बेहतरी के लिए हो। इस राह में थोडी हानि हो, तो उसे इसलिए स्वीकारा जाना चाहिए कि वह बेहतर भविष्य के लिए है।

युवाओं का नया ट्रेंड है लिव-इन

डिनो मोरिया (अभिनेता)

नई पीढी पढी-लिखी है और आर्थिक रूप से स्वतंत्र भी, सो वह अपने फैसले खुद ले रही है। जीवनसाथी की तलाश खुद कर लेती है। पैरेंट्स के फैसले का इंतजार नहीं करती। युवा सोच-समझकर निर्णय लेते हैं। लिव-इन-रिलेशनशिप एक नया ट्रेंड है। यह नया फार्मूला है अपने पार्टनर को जानने, समझने और परखने का। मेरी नजर में यह भी शादी जैसा ही होता है, सिर्फ इसमें शादी की मोहर नहीं लगती। इस दौरान लडका-लडकी एक साथ रहते हैं, एक-दूसरे को समझते हैं और यदि उन्हें लगता है कि पूरी जिंदगी साथ रह सकते हैं तो वे शादी भी कर लेते हैं। सही पार्टनर पाने के चक्कर में भी नई पीढी शादी में देरी करती है। हम कुछ नहीं कर सकते। वक्त के साथ चलना ही होगा।

मेरा मानना है कि पैरेंट्स को बच्चों की शादी में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। छोटे शहरों में चौबीस-पच्चीस की उम्र होते ही युवाओं पर शादी के लिए दवाब बनाना शुरू कर दिया जाता है। पैरेंट्स कहते हैं कि वे खर्च संभाल लेंगे, लेकिन यह उतना आसान नहीं होता। लडके को अपने पैर पर खडा होने का मौका देना चाहिए, क्योंकि उसके भी अपने कुछ सपने होते हैं। शादी भले ही देर से हो, लेकिन लडका-लडकी आत्मनिर्भर और व्यवस्थित होते हैं तो उसका मजा ही कुछ अलग होता है। मैंने भी आत्मनिर्भर होने के लिए अपने परिवार से वक्त लिया और आज ऐसी स्थिति में हूं कि शादी कर सकता हूं। लेकिन जब तक मुझे सही लडकी नहीं मिलेगी, शादी नहीं करूंगा। शादी जिंदगी भर का फैसला होता है। लेकिन यह तय है कि मैं लव मैरिज ही करूंगा।

यह भी हो सकता है लिव-इन में रहूं, क्योंकि मैं देखना चाहूंगा कि उस लडकी के साथ अपनी पूरी जिंदगी गुजार सकता हूं या नहीं? वह बच्चे की देखरेख कर सकेगी या नहीं? मैं किसी को भी जल्दबाजी में शादी करने की सलाह नहीं दूंगा। मैं नई पीढी की सोच से पूरी तरह सहमत हूं। पहले अपने पैरों पर खडा होना चाहिए। उसके बाद ही शादी जैसी बडी जिम्मेदारी के लिए हां कहना चाहिए।

करियर और घर साथ-साथ भी संभव है

प्राची देसाई (अभिनेत्री)

मैंने बचपन से बा (मां) को अपने काम में लीन देखा है। बा स्कूल टीचर थीं। घर पर बूढी दादी थीं। मैं व मेरी बडी बहन की परवरिश, स्कूल, घर का कामकाज और दादी की सेवा जैसी सभी जिम्मेदारियां मां ने बहुत कुशलता के साथ निभाई। मुझे कभी एहसास भी नहीं हुआ कि उनके करियर की वजह से घर में कोई कमी हुई हो। पिछले कुछ वर्र्षो में मैं महसूस कर रही हूं कि युवाओं के लिए करियर सबसे बडी प्राथमिकता है। शादी अब पहले की तरह महत्वपूर्ण नहीं है। लडकियों को भी लडकों की तरह आजादी मिल रही है। पहले तो लडकी के बडे होते-होते शादी की तैयारियां शुरू हो जाती थीं। अब माता-पिता सोचते हैं कि उनका करियर बन जाए फिर वे शादी करें। यही सही भी है। शादी जिंदगी का बहुत बडा फैसला है, जिसे सोच-समझकर लिया जाना चाहिए। देर से शादी हो तो इसमें कोई बुराई नहीं है। जरूरी यह है कि पहले मानसिक तौर पर तैयार हो जाएं। लेकिन मैं मानती हूं कि औरतें चाहें तो बहुत कुछ एक साथ मैनेज कर सकती हैं। वे करियर व घर दोनों साथ संभाल सकती हैं। इसलिए शादी के बाद भी वे काम कर सकती हैं। मुझे शादी के लिए 25+ की उम्र ठीक लगती है। 30-35 के बाद संतानोत्पत्ति में दिक्कत हो सकती है, इसलिए इतनी देरी भी न हो। महानगरों में माता-पिता जागरूक हैं। साथ ही लडकियां भी बौद्धिक स्तर पर स्पष्ट हैं। वे दृढ हैं, अपने फैसलों को लेकर दुविधा में नहीं रहतीं। मुझे भी शादी की कोई जल्दी नहीं है। ऐश्वर्या राय, माधुरी दीक्षित, काजोल जैसी तमाम अभिनेत्रियां शादी के बाद भी काम कर रही हैं। शादी व करियर में कोई बैर नहींहै, मैं तो यही मानती हूं।

सिंगल बट नॉट रेडी टु मिंगल
नरेंद्र कुमार अहमद (फैशन डिजाइनर)

मुझे निजी तौर पर विवाह संस्था पर यकीन है। लेकिन मैं सोचता हूं कि शादी तभी करनी चाहिए, जब मानसिक तौर पर तैयार हों। आर्थिक स्वतंत्रता वास्तव में जरूरी है। आपका जीवनसाथी भी यदि आर्थिक रूप से स्वतंत्र है तो अच्छा रहता है। हम इस बात को झुठला नहीं सकते कि शादी बडी जिम्मेदारी है। पिछले सात-आठ वर्र्षो से युवाओं का सारा ध्यान उनके करियर पर है। वे चाहते हैं कि पहले अपना लक्ष्य हासिल करें, जीवन में एक मुकाम तक पहुंचें। बदलते वक्त के साथ अभिभावक भी अपने विचारों में आधुनिक हुए हैं। एक डर यह भी है कि शादी के बाद यदि पार्टनर ने उनके व्यक्तित्व या करियर में रुकावट डाली तो क्या होगा? लडकियां भी अब शादी से पहले करियर बना लेना चाहती हैं।

ग्लोबल हो चुकी दुनिया ने युवाओं के विचारों पर गहरा असर छोडा है। वे अपने निर्णय खुद तो ले ही रहे हैं, साथ ही दुनिया को भी अपनी नजर से देखना चाहते हैं। सिंगल बट नॉट रेडी टू मिंगल, यही आज का मंत्र बन चुका है। माता-पिता चाहकर भी बच्चों पर अपनी बात नहीं थोप सकते।

जिंदगी जीने के अपने ही फंडे हैं युवाओं के, जिसे स्वीकारने के अलावा अब और कोई विकल्प नहीं है। न सिर्फ खानपान और फैशन में, बल्कि विचारों में भी हमने पश्चिमी सभ्यता व संस्कृति अपना ली है। लेकिन इतना जरूर कहना चाहूंगा कि पाश्चात्य सभ्यता में भी कुछ अच्छी बातें हैं, उन्हें ग्रहण करें और भारतीय सभ्यता आज भी तमाम पश्चिमी देशों के आकर्षण का केंद्र है, यह न भूलें। हर चीज का सही वक्त होता है, शादी का भी।

अपनी शर्तो पर जीना चाहते हैं युवा
स्का चोपडा (अभिनेत्री)

शादी का फैसला तो हर व्यक्ति को खुद ही करना चाहिए। परिपक्व आयु में व्यक्ति जो भी निर्णय लेता है वह सही होता है। ग्लैमर की दुनिया में करियर संवारने में ही सालों लग जाते हैं। ऐसे में शादी की उम्र भी आगे खिसकती जाती है। आज लडकियां हर क्षेत्र में बुलंदियां छू रही हैं। उनकी परवरिश लडकों की ही तरह हो रही है। मेहनत करती हैं और पैसा भी कमा रही हैं। इसलिए शादी के बंधन में जल्दी नहीं बंधना चाहतीं। इसका यह मतलब नहीं कि युवा शादी से डरते हैं। अगर हम सक्षम हैं तो दूसरे के हिसाब से क्यों जिएं।

माता-पिता को अगर बच्चों के निर्णय गलत लगते हैं तो प्यार से उन्हें यह समझाएं। बच्चों के साथ दोस्ताना संबंध रखने चाहिए, इससे रिश्तों में जीवंतता रहती है और बच्चे कुछ छिपाते भी नहीं।

वैवाहिक रिश्ते काफी बदले हैं। पहले लडकियां पति के दु‌र्व्यवहार, मतभेद और ससुराल वालों की प्रताडना को चुपचाप बर्दाश्त कर लेती थीं। अब वे एक घंटे भी बर्दाश्त नहींकरना चाहतीं। क्यों वे अपने सपनों को मारकर जिएं, जब उनमें हर गुण है।

मेरा मानना है कि स्त्री अगर चाहे तो घर बना सकती है-चाहे तो बिगाड सकती है। कोई भी रिश्ता शर्तो पर नहीं, आपसी समझ से चलता है। आज की पीढी पहले की अपेक्षा समझदार तो है, आक्रामक भी है। इसलिए रिश्तों में दरारें पड रही हैं। लेकिन आज के मां-बाप बेटियों के सुख-दुख में साथ निभाते हैं। आज तलाक के बाद भी जीवन समाप्त नहीं समझा जाता, लोग आसानी से नई शुरुआत कर लेते हैं। उनके बारे में समाज में बातें नहीं बनतीं। माता-पिता भी बेटी केनिर्णय को सहजता से स्वीकार लेते हैं। यह वास्तव में अच्छा बदलाव है।

रिश्तों के बदलते समीकरण

1. 66 प्रतिशत लोगों का मानना है कि सामाजिक तौर पर लिव-इन-रिलेशनशिप और विवाह के बीच बहुत कम अंतर है।
2. 53 प्रतिशत लोगों का मानना है कि विवाह उम्र भर साथ निभाने के बजाय एक आयोजन ज्यादा है।
3. 48 प्रतिशत लोग मानते हैं कि वैवाहिक संबंध की तरह ही लिव-इन-रिलेशनशिप भी कमिटमेंट के आधार पर बना हुआ रिश्तों है।

4. 28 फीसदी लोग मानते हैं कि अविवाहित दंपतियों के बजाय विवाहित दंपती बच्चों की परवरिश बेहतर करते हैं।
5. 63 प्रतिशत लोग जरूरत पडने पर तलाक को गलत रास्ता नहीं मानते, बल्कि नवजीवन की शुरुआत के लिए इसे जरूरी मानते हैं।
6. 78 प्रतिशत का मानना है कि तलाक के बजाय खराब रिश्तों का बच्चों पर गलत प्रभाव पडता है।

स्रोत: ब्रिटिश सामाजिक दृष्टिकोण सर्वे 2008

आधुनिकता का अर्थ है मूल्यों को बेहतर बनाना
मधुमिता राउत (ओडिसी नृत्यांगना)

मैं नृत्यांगना हूं। मेरे पिता मायाधर राउत ओडिसी गुरु हैं। मैं भी नृत्य सिखाती हूं। देश-विदेश में घूमने के बाद मैंने पाया कि हमारे समाज के कुछ खास मूल्य हैं, जिन्हें किन्हीं भी परिस्थितियों में छोडा नहीं जा सकता। पूरी दुनिया में भारत को इसीलिए सराहा जाता है कि यहां परिवार, संबंध और नैतिक मूल्य अभी बचे हुए हैं। कलाकार होने के नाते मैं संवेदनशील भी हूं और जानती हूं कि कला कभी तोडना नहीं सिखाती, वह रिश्तों और संस्कृतियों को जोडती ही है।

मैं मानती हूं कि आज के युवा के पास समय कम है, आकांक्षाएं बहुत हैं, लिहाजा वे जिम्मेदारियों से कुछ समय दूर रहना चाहते हैं। मैं भी अभी तक अविवाहित हूं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि मैं विवाह संस्था से दूर रहना चाहती हूं। मेरे पिता का कहना है कि संन्यासी बनकर या गृहस्थी से दूर रहकर शिखर तक तो कोई भी पहुंच सकता है, लेकिन परिवार के साथ उस शिखर को छुए, तो बात है। गीता चंद्रन, शोभना नारायण जैसी तमाम नृत्यांगनाएं अपनी कला के साथ घरेलू जिम्मेदारियों का निर्वाह भी बखूबी कर रही हैं। समाज में तेजी से बदलाव आ रहे हैं। यह एक संक्रमण-काल है, जिसमें बहुत-कुछ भ्रामक भी है। लेकिन स्थितियां फिर सही आकार में लौटेंगी। नब्बे के दशक में अचानक हम बडे बदलाव की ओर बढे हैं। अभी उस उदारीकरण या आजादी का सही-वास्तविक अर्थ स्पष्ट नहींहो पा रहा है, लेकिन जल्दी ही यह स्पष्ट होगा कि उदारीकरण का अर्थ अपने मूल्यों को और बेहतर बनाना है। हम पारिवारिक मूल्यों से अलग नहींहो सकते, कहीं भी जाएं, अपनी जडों की ओर लौटते हैं। जीवन में संतुलन जरूरी है। आज के दौर में करियर या परिवार..जैसा कोई मुद्दा है ही नहीं। दोनों को एक साथ संतुलित ढंग से चलाना ही सही अर्थ में आधुनिकीकरण है। घर-परिवार के साथ करियर भी एक आधुनिक समाज की मांग है। मैं तो मानती हूं कि आज का युवा बहुत परिपक्व है, वह अपने संबंधों को और बेहतर बनाए, सोच को परिष्कृत करे, यही मेरी कामना है अपने साथियों से।

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