गुरुवार, 11 मार्च 2010

नारी

शक्ति का अवतार है नारी
प्राचीन कथाओं-पुराणों की बात करें तो भारत देश में नारी को देवी के रूप में पूजा जाता रहा । उसे शक्ति का अवतार माना जाता है। मंदिरों में संगमरमर की प्रतिमाओं (देवियों की) के समक्ष सारे लोग झुकते हैं। पर वास्तविकता बिलकुल अलग है। स्त्री आज भी निःशक्त है। अपने अधिकारों के प्रति सजग है भी तो, उन अधिकारों का उपयोग करने के लिए स्वतंत्र नहीं।
आज समाज की कुछ प्रतिशत महिलाओं के बारे में जरूर ये कहा जा सकता है कि वे वैचारिक तथा आर्थिक रूप से सुदृढ़ हैं, लेकिन आबादी का एक बड़ा प्रतिशत जो मध्यमवर्गीय है या उससे भी निचले स्तर पर जीता है, वहाँ की स्त्रियाँ आज भी काठ की पुतलियाँ भर हैं। पुरुषों का दंभ स्त्री को वो सम्मान नहीं दे पाया है जिसकी वो हकदार हैं। इस सृष्टि की धुरी स्त्री भयमुक्त नहीं है।
एक परिचिता की बेटी का ब्याह तय हुआ है, मंगेतर आए दिन बेटी से मिलता है। फोन पर बातें करता है। हर बार यही बताने की कोशिश करता है कि उसे ये रंग पसंद है, उसे वो डिश पसंद नहीं तुम शादी के बाद हाईहिल मत पहनना ऊँची दिखोगी। वगैरह। वगैरह। उनकी बेटी हर मुलाकात के बाद उदास हो जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि आज भी पुरुष अपना वर्चस्व कायम रखना चाहता है।
हमारे समाज में यह तो आम बात है कि यदि पत्नी पति से ज्यादा क्वालीफाइड है या दुनिया देखने का उसका नजरिया अधिक व्यापक है, तो पति स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगता है। तब पत्नी के गुणों को बड़े दिल से स्वीकारने की बजाय वह उसे दबाकर रखने का हरसंभव प्रयास करता है। आखिर ऐसा क्यों? नारी को पृथ्वी की तरह सहनशक्ति वाली और क्षमाशील कहा गया है, वो स्वयं बंधन में सुखी रहती है।
नारी उन्नति के बारे में कसीदे काढ़ते विभिन्न सामाजिक संगठन क्या कहते हैं, अथवा नारी सशक्तीकरण को लेकर सरकारी बाशिंदे क्या कहते हैं, उसका विश्लेषण करने की बजाय हम अपने आसपास नजरें दौड़ाएँगे, तो पाएँगे कि स्त्री की मजबूरी, लाचारी या अत्याचार सहने के बाद के साथी सिर्फ उसके आँसू रह जाते हैं। आज भी कई स्त्रियाँ अपने पति की स्वीकृति के बगैर एक छोटा-सा निर्णय भी नहीं ले पाती हैं।
सिक्के का दूसरा पहलू सुकून देता है। जहाँ पुरुषों के एक छत्र साम्राज्य के बीच अपने वजूद को स्थापित करती नारी या इतिहास के पन्नों में अपनी जगह दर्ज करती जा रही नारियों की एक लंबी फेहरिस्त है, जो निरंतर बढ़ रही है। अपने दायित्व एवं कर्तव्यों को निर्वाह करती स्त्री आत्मनिर्भर भी हो रही है। लेकिन आज भी उसे अपना 'स्पेस' नहीं मिल पा रहा है।
अधिकारों के लिए हर पल लड़ाइयाँ हैं, चुनौतियाँ हैं। जब पुरुषों के लिए अवसरों की उपलब्धता आसान है, तो नारी की राह भी मुश्किल नहीं होनी चाहिए। आवश्यकता है कि हम स्त्री समाज के लिए सकारात्मक, सहयोगात्मक दृष्टिकोण रखते हुए नए सिरे से उनके लिए सोचें। स्त्री के रूप में हर रिश्ते को सम्मान दें क्योंकि वो उसका हक है।

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