मंगलवार, 11 जनवरी 2011

प्रादेशिक

विश्व का प्रथम वानर भोजनालय!
तीर्थनगरी ओंकारेश्वर में एक अनोखे भोजनालय का शुभारंभ होने जा रहा है। यह भोजनालय विश्व में अपने तरह का अनोखा और पहला भोजनालय माना जा रहा है। वानरों के लिए बनाए गए इस भोजनालय में करीब 2000 वानरों को प्रतिदिन खाद्य सामग्री उपलब्ध कराई जाएगी।
इस अनोखे प्रयास का बीड़ा इंदौर के दो समाजसेवियों अनिल खंडेलवाल और हरीश गहलोत ने उठाया है। एक जानकारी के मुताबिक ओंकारेश्वर क्षेत्र में लगभग छह से सात हजार वानर विचरण करते हैं। ये वानर श्रद्धालुओं से छीन-झपटकर अपना भोजन जुटाते हैं। अब उन्हें भोजन के लिए मशक्कत नहीं करना पड़ेगी और सिर्फ चने-चिरोंजी पर दिन नहीं गुजारना पड़ेगा। इन्हें अब भरपेट भोजन मिलेगा।
हनुमानजी की कृपा से प्रेरणा मिली : वानर भोजनालय के संचालक खंडेलवाल और गेहलोत ने बताया कि हम प्रतिमाह ओंकारेश्वर में ओंकार पर्वत स्थित लेटे हुए हनुमानजी को चोला चढ़ाने जाते थे वहीं से वानरों को भूखा भटकते देखकर हमें आदिवासी महिला केसरबाई के आशीर्वाद और हनुमानजी की कृपा से यह प्रेरणा मिली।
स्वच्छंदता प्रभावित : उन्होंने कहा कि परिक्रमा मार्ग पर तेजी से बढ़ रहे अतिक्रमण और पेड़ों की कटाई से बंदरों की स्वच्छंदता और चंचलता प्रभावित हुई है साथ ही उनके रहने और खाने की व्यवस्था भी बिगड़ गई है। इससे उनके अस्तित्व पर संकट गहराने लगा है यदि ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन तीर्थ नगरी से वानरों की विलुप्ति का खतरा बढ़ जाएगा।
आस्था जुड़ी है : बंदरों के कारण तीर्थयात्रियों की आस्था भी इनसे जुड़ी हुई है। गर्मी में यहाँ के अधिकांश वानर बस्ती की ओर कूच कर जाते थे, भोजनालय खुलने से अब ये अन्यत्र नहीं जाएँगे। औंकार पर्वत परिक्रमा मार्ग के मध्य लेटे हनुमान मंदिर परिसर के पास बनाए गए इस भोजनालय में पीने के शुद्ध पानी के साथ ही विश्राम के लिए शेड भी बनाया गया है।
रोज 100 किलो आटे की व्यवस्था : गहलोत और खंडेलवाल ने बताया कि बंदरों के भोजन के लिए जन सहयोग से प्रतिदिन करीब 100 किलो आटा, चने, फल आदि खाद्य पदार्थों की भी व्यवस्था की जा रही है। फिलहाल 20 बाय 20 का एक हॉल बनाया गया है, लेकिन इस भोजनालय पूर्ण करने में लगभग 5 से 6 लाख का खर्च आएगा, जिसे जनसहयोग से इकट्ठा करने के प्रयास किए जा रहे हैं। फिलहाल निर्माण कार्य प्रगति पर है और अभी तक इस पर 1 लाख 50हजार रुपए खर्च हो चुके हैं।
उल्लेखनीय है कि नर्मदा नदी के पुल के इस पार लाल मुँह के और पुल के उस पार काले मुँह के सैकड़ों बंदर रहते हैं। हालाँकि इस पहल के पीछे आस्था है, लेकिन वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए इससे प्रेरणा तो ली ही जा सकती है।

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