शनिवार, 5 जून 2010

एक बूँद जल बचाने की सौगंध है

एक बूँद जल बचाने की सौगंध है
पर्यावरण दिवस की शुभकामनाएँ देते हुए पता नहीं क्यों शब्द काँप रहे हैं, भावनाएँ थरथरा रही हैं। किसे दें शुभकामनाएँ और कैसे दें। पिछले दिनों शहर में विकास के नाम पर वर्षों से अटल खड़े पेड़ों की निर्मम हत्या देखी।
कई दिनों तक उन पेड़ों की 'लाश' पड़ी रही लहूलुहान और हम उसे देखते गुजरते रहे। ना याद आई हमें उसकी ठंडी कोमल छाँव, ना आँखों को सुहाते रंगीन फूल। हम कितने कृतघ्न और कपटी होते जा रहे हैं।
हमें अंदाजा तक नहीं है कि प्रकृति का पोषण नहीं मिला तो कितनी त्राहि-त्राहि मच जाएगी। एक तरफ फूटी पाइप लाइन, उससे व्यर्थ बहता पानी और दूसरी तरफ देखी टैंकर पर पानी की लड़ाई। एक तरफ देखे 'स्मृति-वनों' पर वृक्षारोपण के 'हसीन' दृश्य और दूसरी तरफ मुरझाते सूखते नन्हे पौधे। एक तरफ बड़े-बड़े मॉल्स, शॉपिंग काम्प्लेक्स, दूसरी तरफ कोई कराहता हुआ निष्प्राण सा बुजुर्ग पेड़।
कहीं सुनाई दी कोयल की मीठी तान तो कहीं तरसती रही आँखें नन्ही गौरैया के लिए। कहीं सफेद शेर के आगमन का जश्न छपा अखबारों में तो कहीं चिड़ियाघर में जंजीरों में छटपटाता हाथी आखिर मुक्त हो गया जीवन से। कहीं किसी विज्ञापन में नन्हे कुत्ते के दौड़ने पर बहस चल पड़ी तो कहीं पोलिथीन खाकर तड़पती गाय की सुध लेने वाला भी कोई ना मिला। कैसा पर्यावरण?
आप बताएँ मैं किसे दूँ बधाई! क्यों हम अपने कर्मों से प्रकृति को कुपित करते हैं? क्यों‍ उसे आना पड़ता है आपको चेताने 'नरगिस' या 'सुनामी' बनकर? प्रकृति की अपार संपदा पर गर्व करने का हममें से किसी को हक नहीं है। अगर हम नहीं बचा पाते हैं अपने ही आसपास के हरियाले वातावरण को।
हम कब सम्हलेंगे पूछें अपने आप से। पर्यावरण दिवस पर बस यही एक गुजारिश है। संकल्पों से नहीं सौगंध से सुधरेगा पर्यावरण। आपको भी एक पेड़, एक पंछी, एक बूँद जल बचाने की सौगंध है।

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