सोमवार, 21 जून 2010

राष्ट्रीय

विकसित था सिंधु घाटी का विज्ञान
क्या सिन्धु घाटी की सभ्यता आज की तरह सुविकसित वैज्ञानिक सभ्यता थी? क्या वे लोग जीवन के आधार डीएनए की संरचना को जान चुके थे? क्या उन्हें जीवन की उत्पत्ति, जैव विकास और सृष्टि के क्रियाकलापों की वैज्ञानिक जानकारी थी? अनादिकाल से अनुत्तरित इन सवालों के जवाब एक भारतीय वैज्ञानिक के पास हैं। लेकिन क्या दुनिया के वैज्ञानिक उनके दावे को सरलता से हजम कर पाएँगे?
वैदिक शोध संस्थान के संस्थापक एवं प्रोफेसर डॉ. सीपी त्रिवेदी का दावा है कि दुनिया इस बात को माने या न माने, लेकिन वे सप्रमाण इसे साबित कर सकते हैं। उस सभ्यता में जीव विज्ञान, माइक्रो बॉयोलॉजी व बॉयो टेक्नोलॉजी का ज्ञान परिपक्व हो चुका था। उन्होंने सारे प्रमाण वर्तमान आधुनिक विज्ञान की मदद से ही जुटाए हैं। सिन्धु घाटी के अवशेषों में मिली सीलों और मोहरों पर उत्कीर्ण चित्रों व संकेतों में हूबहू आज के वैज्ञानिक संकेतों व रेखाचित्रों की झलक मिलती है।
डॉ. त्रिवेदी का कहना है कि सीलों और मोहरों पर जो भाषा और लिपि उत्कीर्ण है उसके बारे में जैसे-जैसे हमारी समझ विकसित हो रही है, हम इस दावे के नजदीक पहुँच रहे हैं। वेदों की सांकेतिक भाषा इस रहस्य को सुलझाने का महत्वपूर्ण औजार साबित हुई है। कई सीलों पर वैदिक रूपकों को उत्कीर्ण किया गया है, इससे स्पष्ट है कि इन सीलों का सीधा संबंध वैदिक ज्ञान से भी रहा है।
आधुनिक विज्ञान भी इसकी पुष्टि करता है। हड़प्पा और मोहन जोदड़ो के शहरों की सभ्यता में जल निकासी व सड़क आदि के नियोजन ने उस सभ्यता की वैज्ञानिकता को काफी पहले प्रमाणित कर दिया था। जीव विज्ञान की दृष्टि से आधुनिक विज्ञान ने उस सभ्यता के अन्य कई रहस्यों को जानने में हमारी मदद की है।
डीएनए का वैदिक नाम त्वष्टा : डॉ. त्रिवेदी के अनुसार सीलों पर उत्कीर्ण जानवरों के चित्रों के गहराई से अध्ययन पर उसके पीछे कोई विशेष उद्देश्य दिखता है। जीवन की उत्पत्ति और डीएनए सिन्धु घाटी की सभ्यता की सीलों व मोहरों पर आकृतियों में जीवन की उत्पत्ति की प्रारंभिक अवस्थाओं को दिखाया गया है।
प्रारंभिक जैविक सूप (कोसरवेट) के चित्र भी सीलों पर अंकित हैं। किस तरह डीएनए अणु बने, गुणसूत्र (क्रोमोसोम्स), क्रॉसिंग ओवर, कोशिकाएँ और कोशिका विभाजन की विभिन्ना अवस्थाएँ मोहरों पर भी उत्कीर्ण हैं। डीएनए (डी ऑक्सी रिबोज न्यूक्लिक एसिड) की आकृति और जैव प्रौद्योगिकी से सिन्धु घाटी के लोग परिचित थे। ये आकृतियाँ आधुनिक विज्ञान द्वारा प्रस्तुत आकृतियों से मिलती-जुलती हैं।
पशु मुद्रा वाली सीलों में यह उद्घाटित होता है कि सृष्टि का उद्भव व विकास ऊर्जा के ऊष्मा संबंधी सिद्धांतों के अंतर्गत मौलिक ऊर्जा से हुआ, जो ब्रह्मांड में व्याप्त है। इसका वर्णन ऋग्वेद में भी मिलता है। आइंस्टीन ने यही बात तो कही थी। डीएनए का वैदिक नाम त्वष्टा है। इसे समस्त जीवों का निर्माता विश्वरूप और विभाजन का कारक कहा गया है। इसकी संरचना को सांकेतिक रूप में चार क्षारों (बेस) से दर्शाया जाता है। सीलों में उत्कीर्ण पशु के चार सींग यही दर्शाते हैं।
डीएनए की क्रिया ट्रिप्लेट संकेत पर निर्भर है। इसे तीन पैरों के रूप में दर्शाया गया है। डीएनए की दो पट्टियों को दो सिर कहा गया है। हाइड्रोजन बॉण्ड को हाथ द्वारा अभिव्यक्त किया गया है। जीव जगत का भोजन पौधों में उपस्थित क्लोरोफिल और प्रकाश संश्लेषण पर निर्भर करता है। इसे योगी के सिर पर संकेतात्मक पीपल की पत्तियों के द्वारा दर्शाया गया है। इसकी व्याख्या भी ऋग्वेद में है।
जीव जगत का विकास एक कोशिका से हुआ और कोशिका विभाजन से विकास आगे बढ़ा। इसे मछलीनुमा आकृति से दर्शाया गया है। न्यूक्लियस (केंद्रक) को मध्य बिंदु द्वारा दर्शाया गया है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें