सोमवार, 7 जून 2010

रिश्ते

थोड़ा झुक कर ही निभते हैं रिश्ते
दिल्ली के व्यस्त इलाके कालका जी के शांत हिस्से में मृदुला जी का घर है। निचली मंजिल पर उनका ऑफिस है। हम वहां पहुंचे तो पहली मंजिल पर ले जाने के लिए स्वयं मृदुला जी नीचे आई। बेहद सौम्य, साधारण और शांत व्यक्तित्व है उनका। पूछा, कहां बैठना चाहेंगी? मैंने कहा, जहां आपको सुविधा हो। बातचीत करते हुए ही हम ऊपर पहुंचे। ड्रांइग रूम उनकी रचनात्मकता की कहानी कह रहा था। पेटिंग और किताबों के बीच ही आराम से बैठने की व्यवस्था थी। मृदुला जी से डॉक्टर साहब के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, हा,ं वह भी हैं, अभी आते हैं।

रिश्ते पर बातचीत शुरू हुई तो वह अपने शुरुआती दौर को याद करने लगीं। बताती हैं, बिहार के छपरा जिले के एक गांव से हूं मैं। मेरे गांव की कोई लडकी दूसरी-तीसरी क्लास से आगे नहीं पढ सकी। लेकिन मैंने बालिका विद्यापीठ, लखीसराय से स्कूलिंग की। बचपन से अपने रूप-रंग को लेकर आलोचना सुनती आई थी। विवाह योग्य होने पर पिता ने वर देखने शुरू किए। दहेज में देने के लिए कुछ था नहीं, उस पर कोई ऐसा गुण भी नहीं, जो उल्लेखनीय हो। जब सिन्हा साहब को मेरी पढाई और कॉलेज के बारे में पता चला तो उन्होंने रिश्ते की स्वीकृति दे दी। मैं फ‌र्स्ट ईयर में थी जब शादी हुई। मेरी तुलना में यह कहीं ज्यादा सुंदर व पढे-लिखे थे। पहले कई दिन तक बारात ठहराने की परंपरा थी। मेरी बारात भी रुकी। विवाह के अगले दिन मेरी भाभी ने यह सोच कर कि वर पढा-लिखा है तो इसे एक बार वधू से मिलवा दिया जाए, अकेले में मिलने की व्यवस्था बनाई। शुक्ल पक्ष की दूज की अंधेरी रात। गांव में बिजली थी नहीं, लालटेन की मटमैली रोशनी में जहां कमरे का दरवाजा व खिडकियां भी बंद हों, इन्होंने मुझसे पूछा,कैसा रंग है, कचिया या पकिया? मैं कुछ नहीं बोली। जाहिर है, क्या बोलती!

डॉ. सिन्हा: बगल में चांद था, पर रोशनी के अभाव में ठीक से दिखा भी नहीं। हालांकि उस समय इस तरह से मिलना भी कम कानाफूसी का विषय नहीं बना, लेकिन मेरे लिए वे पल यादगार बन गए।

धीरे-धीरे हुआ प्यार

मृदुला: विवाह के कुछ दिन बाद मैं अपने कॉलेज चली गई और यह काम पर चले गए। सास के कहने पर यह मेरे लिए एक साडी खरीद कर लाए। वह साडी मुझे पसंद नहीं आई। मैं जाकर बदल लाई। पता लगने पर इन्होंने कहा, जब मेरी पसंद तुम्हें नापसंद है तो ठीक है, अब कुछ नहीं लाऊंगा। शादी के अगले साल बंगाल के जिस कॉलेज में यह लेक्चरर थे, वहां मैं अपने भाई-भाभी के साथ कुछ दिन बिताने गई। एक दिन हमें इन्होंने कोलकाता घूमने को कह दिया और खुद कॉपियां जांचने में व्यस्त हो गए। लेकिन जब मैं वही साडी पहन कर घूमने जाने के लिए बाहर निकली तो इन्होंने कॉपियां जांचना छोड हमारे साथ घूमने का इरादा बना लिया। अब सोचिए कि उस साडी की खूबसूरती ने साधारण पत्नी को खास बना दिया था। इस तरह की छोटी-छोटी बातों से ही हमारे बीच प्यार बढता गया।

कैसे जीवनसाथी की तमन्ना थी

डॉ. सिन्हा: मृदुला की पढाई मुजफ्फरपुर के महंत दर्शनदास महिला कॉलेज से हुई। मुझे लगा कि पढी-लिखी आधुनिक युवती होगी। मुझसे कुछ लोगों ने शादी से पहले लडकी देखने पर जोर दिया, पर मैंने खुद ही इंकार कर दिया था। मेरे लिए रूप-रंग से ज्यादा महत्व विचारों के मेल का था। मृदुला में मुझे मेरी सोच रखने वाली जीवनसंगिनी मिली।

मृदुला : मुझे आज भी याद है डॉक्टर साहब ने पहली मुलाकात में ही स्पष्ट कर दिया था, मैं तुम्हें सुख-समृद्धि नहीं दे सकता। राजनीति मेरा लक्ष्य है, हो सकता है मेरे साथ तुम्हें गांव-गांव भटकना पडे। मनोविज्ञान में एम.ए. करने के बाद मुझे मोतिहारी में लेक्चररशिप मिल गई। घर-परिवार और बच्चों की जिम्मेदारियां अधिकतर मुझ पर ही थीं। उसी समय जनसंघ की जिला प्रधान भी बन गई। व्यस्तताएं और भी बढ गई। सबसे अच्छी बात यह रही कि मुश्किल वक्त में मैंने हमेशा इन्हें अपने साथ पाया। बच्चों को पालने में भी इन्होंने मेरी पूरी मदद की।

अब मिले जिंदगी के मायने

मृदुला : हमारा जीवन तो सही मायने में अब शुरू हुआ है, जब हम अपनी सारी जिम्मेदारियों से पूरी तरह मुक्त हो चुके हैं। हम दोनों चार बजे उठ जाते हैं। चार से साढे छह तक बातें करते हैं। इन बातों का हिस्सा पारिवारिक मसले बिलकुल नहीं होते। जो कुछ पढते-देखते-सुनते हैं, उसी पर चर्चा होती है। उसके बाद यह अखबार पढते हैं और मैं लिखने में जुट जाती हूं। जो सुनती हूं, उसे ही कागज पर उतारना शुरू कर देती हूं। कई बार ऐसा भी होता है कि सोच इनकी और शब्द मेरे होते हैं। मेरे लिए बताना कठिन है कि लेखन में यह कहां हैं और मैं कहां हूं? आज हमारा सब कुछ एक है, हमारे दोस्त, हमारे विचार और हमारा जीवन। यह संतोष पर्याप्त है कि जो कुछ इनके पास है वह मेरा है।

सबसे अच्छे आलोचक

डॉ. सिन्हा: रास्ते में चलते हुए इन्होंने कभी हाथ नहीं पकडने दिया। बाल तक कटवाने को राजी नहीं हुई। मैं इनकी सुनता नहीं, यह शिकायत इनकी हमेशा रही। कभी उपहार नहीं देता, क्योंकि इन्हें पसंद नहीं आता।

मृदुला : इन्होंने निंदक नियरे राखिए को सही मायनों में चरितार्थ किया। मेरे सबसे अच्छे आलोचक हैं डॉक्टर साहब। मुझे याद नहीं आता कि मेरे द्वारा किए गए किसी काम की आलोचना इन्होंने न की हो।

यादगार पल

मृदुला : सबसे अच्छा समय वह रहा जब हम मुजफ्फरपुर में थे। अपनी जमीन खरीद कर खपरे का मकान बनाया। किचन गार्डन लगाया। खुले आकाश में पूरे चांद की रोशनी का आनंद ही अलग था। खाना खाते-खाते यह कहते, चोखा नहीं बनाया? और मैं तुरंत गार्डन से बैगन तोड चोखा बनाने में जुट जाती। वे दिन शायद ही कभी भुलाए जा सकें।

मुझसे किसी ने पूछा कि आपने कितना संघर्ष किया परिवार और रिश्तों के लिए? तो मैं कहती हूं कि संघर्ष नहीं, मैंने मेहनत की। कोई शॉर्ट-कट नहीं है जीवन के रास्तों का।

रिश्ते का सार

मृदुला : मैंने पति से बराबरी का नहीं, समझदारी का रिश्ता रखा। थोडा झुक कर ही रिश्ते निभते हैं। कभी-कभी हार में ही जीत छिपी होती है। घर और संबंध स्त्री से बनते हैं, पति केवल सहयोगी होता है। यह विवाह का गठबंधन भी बडा अजीब है। पति इसे अपनी ओर तो पत्नी अपनी ओर खींचना चाहती है। इस खींचतान से यह गांठ और मजबूत होती है। गठबंधन का सार ही यही है।

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