रविवार, 12 सितंबर 2010

फिल्म समीक्षा

दबंग : फिल्म समीक्षा
कुछ स्टार्स की अदाएँ दर्शकों को इतनी पसंद आती है कि हर किरदार को वे उसी तरह अभिनीत करते हैं जैसा कि दर्शक देखना चाहते हैं। रजनीकांत चाहे चोर बने या पुलिस उनका अभिनय एक-सा रहता है।
इसी तरह सलमान का भी स्टाइल है। अकड़ कर रहना। बिना एक्सप्रेशन के संवाद बोलना। किसी से नहीं डरना। उनके व्यक्तित्व में एक किस्म की दबंगता है और उसी को ध्यान में रखकर ‘दबंग’ बनाई गई है।
सलमान की ये स्टाइल तभी अच्छी लगती है जब कहानी में दम हो। दूसरे किरदारों को अच्छी तरह से पेश किया गया हो। ‘दबंग’ में सलमान की अदाएँ हैं, लेकिन कहानी ढूँढे नहीं मिलती। हर फ्रेम में सलमान को इतना ज्यादा महत्व दिया गया है कि दूसरे किरदारों को उभरने का मौका नहीं मिलता।
फिल्म के लेखक और डायरेक्टर का ध्यान ऐसे दृश्यों को गढ़ने में रहा कि बस सलमान ही सलमान नजर आए। उन्हें बेहतरीन संवाद बोलने को मिले। हीरोगिरी दिखाने का भरपूर मौका मिला, लेकिन कहानी के अभाव में ये सीन बनावटी नजर आते हैं।
चुलबुल पांडे (सलमान खान) एक पुलिस इंसपेक्टर है जो गुंडों को लूटता है। अपने आपको वह रॉबिनहुड पांडे कहता है। चुलबुल अपनी माँ (डिम्पल कपाड़िया) को बेहद चाहता है, लेकिन अपने सौतेले पिता (विनोद खन्ना) और सौतेले भाई माखनसिंह (अरबाज खान) से चिढ़ता है।
रोजा (सोनाक्षी सिन्हा) पर चुलबुल का दिल आ जाता है। छेदी सिंह (सोनू सूद) एक स्थानीय नेता है जो चुलबुल को पसंद नहीं करता। माँ की मौत के बाद चुलबल के अपने सौतेले भाई और पिता से संबंध खराब हो जाते हैं और इसका लाभ छेदी उठाता है।
वह दोनों भाइयों के बीच की दूरी को और बढ़ाता है। किस तरह माखन और चुलबुल में दूरी मिटती है और वे छेदी से मुकाबला करते हैं यह फिल्म का सार है।
फिल्म की कहानी बेहद कमजोर है। नायक अपने को रॉबिनहुड कहता है लेकिन ऐसे दृश्य गायब हैं जिसमें वह लोगों की मदद कर रहा हो। अपने सौतेले भाई से वह क्यों चिढ़ता है, इसके पीछे भी कोई ठोस वजह नहीं है जबकि उसका भाई कभी उसका बुरा नहीं करता। माखन को उसके माँ-बाप मंदबुद्धि कहते हैं, लेकिन वह होशियार नजर आता है।
इंटरवल तक सारा फोकस सलमान पर है। एक सीन में वे एक्शन करते हैं, दूसरे में रोमांस और तीसरे में धाँसू संवाद बोलते नजर आते हैं, जिनका मुख्य कहानी से कोई लेना देना नहीं है।
ऐसे कई दृश्य हैं जो ठूँसे हुए लगते हैं। मिसाल के तौर पर सोनाक्षी सिन्हा को थाने बुलाया जाता है और उन्हें हँसाने की कोशिश की जाती है। सलमान और सोनाक्षी के बार-बार मिलने वाले दृश्य भी दोहराव के शिकार हैं। गृहमंत्री को बम से उड़ाने वाला प्रसंग सहूलियत के मुताबिक लिखा गया है।
हीरोगिरी तब अच्छा लगता है जब खलनायक वाले किरदार में भी दम हो। उसे शक्तिशाली बताया जाए और फिल्म में उसकी मौजूदगी का लगातार अहसास हो। लेकिन ‘दबंग’ के खलनायक सोनू सूद के किरदार को अंत में उभारा गया है ताकि क्लाइमैक्स वजनदार हो, लेकिन आधी से ज्यादा फिल्म में वे गायब रहते हैं।
निर्देशक अभिनव कश्यप ने इस फिल्म को पूरी तरह से सलमान के फैंस को ध्यान में रखकर बनाया है, लेकिन कई बेसिक बातों को वे भूल गए। यदि वे दूसरे कैरेक्टर्स पर भी ध्यान देते, तो फिल्म प्रभावी हो सकती थी। उत्तर प्रदेश के देहाती इलाके को उन्होंने अच्छे से पेश किया है।
फिल्म का संगीत हिट हो गया है, इसलिए गाने अच्छे लगते हैं। हालाँ‍कि गानों को बिना सिचुएशन के रखा गया है। ‘मुन्नी बदनाम हुई’ और ‘तेरे मस्त-मस्त दो नैन’ का फिल्मांकन अच्छा है। एक्शन सीन में नयापन नहीं है और बैकग्राउंड म्यूजिक ‘शोले’ के बैकग्राउंड म्यूजिक की याद दिलाता है।
सलमान खान इस फिल्म की जान है। जैसा उनके प्रशंसक उन्हें देखना चाहते हैं, उसी अंदाज में उन्होंने एक्टिंग की है। उनकी वजह से ही फिल्म में कई ऐसे दृश्य हैं जो राहत प्रदान करते हैं। मनोरंजन करते हैं। इस फिल्म को देखने की एकमात्र वजह वे ही हैं। यदि फिल्म से सलमान को हटा दिया जाए तो यह एक बी-ग्रेड मूवी लगती है। क्लाइमैक्स में उनकी शर्ट फटने वाला सीन उनके फैंस को बेहद पसंद आएगा।
पहली फिल्म में सोनाक्षी सिन्हा आत्मविश्वास से भरपूर नजर आई। सलमान जैसे अनुभवी अभिनेता का उन्होंने बखूबी साथ निभाया। अरबाज खान ने भी अपना किरदार ठीक से निभाया है। सोनू सूद अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रहे हैं। छोटे-छोटे रोल विनोद खन्ना, ओम पुरी, डिम्पल कपाड़िया, टीनू आनंद, महेश माँजरेकर जैसे मँजे हुए कलाकारों ने निभाए। मलाइका अरोरा ने ‘मुन्नी बदनाम हुई’ पर मादक नृत्य किया है।
कुल मिलाकर ‘दबंग’ तभी पसंद आ सकती है जब आप सलमान के बहुत बड़े प्रशंसक हो।

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